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प॒रि॒षद्यं॒ ह्यर॑णस्य॒ रेक्णो॒ नित्य॑स्य रा॒यः पत॑यः स्याम। न शेषो॑ अग्ने अ॒न्यजा॑तम॒स्त्यचे॑तानस्य॒ मा प॒थो वि दु॑क्षः ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pariṣadyaṁ hy araṇasya rekṇo nityasya rāyaḥ patayaḥ syāma | na śeṣo agne anyajātam asty acetānasya mā patho vi dukṣaḥ ||

पद पाठ

प॒रि॒ऽसद्य॑म्। हि। अर॑णस्य। रेक्णः॑। नित्य॑स्य। रा॒यः। पत॑यः। स्या॒म॒। न। शेषः॑। अ॒ग्ने॒। अ॒न्यऽजा॑तम्। अ॒स्ति॒। अचे॑तानस्य। मा। प॒थः। वि। दु॒क्षः॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:4» मन्त्र:7 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:6» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अपना कौन और पराया धन कौन है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! आप (अचेतानस्य) चेतनतारहित मूर्ख के (पथः) मार्गों को (मा) मत (विदुक्षः) दूषित कर (परिषद्यम्) सभा में होनेवाले (अन्यजातम्) अन्य से उत्पन्न (हि) ही (रेक्णः) धन को इस प्रकार जाने कि इस की (शेषः) विशेषता वा अपने आत्मा की ओर से शुद्ध विचार कुछ (न, अस्ति) नहीं है, ऐसा जानो, आपके सङ्ग वा सहाय से हम लोग (अरणस्य) संग्रामरहित (नित्यस्य) स्थिर (रायः) धन के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! धर्मयुक्त पुरुषार्थ से जिस धन को प्राप्त हो उसी को अपना धन मानो, किन्तु अन्याय से उपार्जित धन को अपना मत मानो। ज्ञानियों के मार्ग को पाखण्ड के उपदेश से मत दूषित करो, जैसे धर्मयुक्त पुरुषार्थ से धन प्राप्त हो, वैसे ही प्रयत्न करो ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

किं धनं स्वकीयं परकीयञ्चास्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वमचेतानस्य पथो मा विदुक्षः परिषद्यमन्यजातं हि रेक्णोऽस्य शेषो वा स्वकीयो नास्तीति विजानीहि त्वत्सङ्गेन सहायेन वयमरणस्य नित्यस्य रायः पतयः स्याम ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (परिषद्यम्) परिषदि सभायां भवम् (हि) (अरणस्य) अविद्यमानो रणः सङ्ग्रामो यस्मिंस्तस्य (रेक्णः) धनम्। रेक्ण इति धननाम। (निघं०२.१०) (नित्यस्य) स्थिरस्य (रायः) धनस्य (पतयः) स्वामिनः (स्याम) (न) (शेषः) (अग्ने) विद्वन् (अन्यजातम्) अन्येनाऽन्यस्माद्वा समुत्पन्नम् (अस्ति) (अचेतानस्य) चेतनतारहितस्य मूर्खस्य (मा) (पथः) मार्गान् (वि) (दुक्षः) दूषयेः ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यद्धर्मयुक्तेन पुरुषार्थेन धनं प्राप्नुयात्तदेव स्वकीयं मन्यध्वं नाऽन्यायेनोपार्जितं ज्ञानिनां मार्गं पाखण्डोपदेशेन मा विदूषयत यथा धर्म्येण पुरुषार्थेन धनं लभ्येत तथैव प्रयतध्वम् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! धर्मयुक्त पुरुषार्थाने जे धन प्राप्त होईल त्यालाच आपले धन माना. अन्यायाने उपार्जित केलेल्या धनाला आपले मानू नका. ज्ञानी लोकांचा मार्ग ढोंगी, पाखंडी उपदेश करून दूषित करू नका. धर्मयुक्त पुरुषार्थाने जसे धन प्राप्त होईल असा प्रयत्न करा. ॥ ७ ॥